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ई॒ळेन्यं॑ वो॒ असु॑रं सु॒दक्ष॑म॒न्तर्दू॒तं रोद॑सी सत्य॒वाच॑म्। म॒नु॒ष्वद॒ग्निं मनु॑ना॒ समि॑द्धं॒ सम॑ध्व॒राय॒ सद॒मिन्म॑हेम ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

īḻenyaṁ vo asuraṁ sudakṣam antar dūtaṁ rodasī satyavācam | manuṣvad agnim manunā samiddhaṁ sam adhvarāya sadam in mahema ||

पद पाठ

ई॒ळेन्य॑म्। वः॒। असु॑रम्। सु॒ऽदक्ष॑म्। अ॒न्तः। दू॒तम्। रोद॑सी॒ इति॑। स॒त्य॒ऽवाच॑म्। म॒नु॒ष्वत्। अ॒ग्निम्। मनु॑ना। सम्ऽइ॑द्धम्। सम्। अ॒ध्व॒राय॑। सद॑म्। इत्। म॒हे॒म॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:2» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य किसका सत्कार करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे हम लोग (वः) आपके (अन्तः) बीच में (असुरम्) मेघ के तुल्य वर्त्तमान (सुदक्षम्) सुन्दर बल और चतुराई से युक्त (रोदसी) सूर्य-भूमि और (दूतम्) उपताप देनेवाले (अग्निम्) कार्य को सिद्ध करनेवाले अग्नि को जैसे, वैसे (सत्यवाचम्) सत्य बोलनेवाले (ईळेन्यम्) प्रशंसा योग्य (मनुष्वत्) मनुष्य के तुल्य (मनुना) मननशील विद्वान् के साथ (अध्वराय) हिंसारहित व्यवहार के लिये (समिद्धम्) प्रदीप्त किये (सदम्) जिसके निकट बैठें, उस अग्नि के तुल्य विद्वान् को (सम्, इत्, महेम) सम्यक् ही सत्कार करें, वैसे तुम लोग भी इस का सत्कार करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो मेघ के तुल्य उपकारक, अग्नि के तुल्य प्रकाशित विद्यावाले, धर्मात्मा, विद्वानों का सत्कार करते हैं, वे सर्वत्र सत्कार पाते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कं सत्कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथा वयं वोऽन्तरसुरमिव सुदक्षं रोदसी दूतमग्निमिव सत्यवाचमीळेऽन्यं मनुष्वन्मनुनाऽध्वराय समिद्धं सदमग्निमिव विद्वांसमिन्महेम तथा यूयमप्येनं सत्कुरुत ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ईळेन्यम्) प्रशंसनीयम् (वः) युष्माकम् (असुरम्) मेघमिव वर्त्तमानम् (सुदक्षम्) सुष्ठुबलचातुर्यम् (अन्तः) मध्ये (दूतम्) यो दुनोति तम् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (सत्यवाचम्) सत्या वाग्यस्य तम् (मनुष्वत्) मनुष्येण तुल्यम् (अग्निम्) कार्यसाधकं पावकम् (मनुना) मननशीलेन विदुषा (समिद्धम्) प्रदीपनीकृतम् (सम्) सम्यक् (अध्वराय) अहिंसिताय व्यवहाराय (सदम्) सीदन्ति यस्मिँस्तम् (इत्) इव (महेम) सत्कुर्याम ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये मघवदुपकारकानग्निवत्प्रकाशितविद्यान् धर्मिष्ठान् विदुषः सत्कुर्वन्ति ते सर्वत्र सत्कृता भवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जे मेघाप्रमाणे उपकारक, अग्नीप्रमाणे प्रकाशक, विद्यावान, धर्मात्मा विद्वानांचा सत्कार करतात, त्यांचा सर्वत्र सत्कार होतो. ॥ ३ ॥